धूप से निकलो घटाओं में नहा कर देखो
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ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो
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वो सितारा है चमकने यूँ ही आँखों में
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क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो
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पत्थरों में भी ज़ुबाँ होती है दिल होते हैं
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अपने घर की दर-ओ-दीवार सजा कर देखो
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फ़ासला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
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वो मिले या न मिले हाथ बढ़ा कर देखो
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हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुकद्दर मेरा
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मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा
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किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
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हर जगह ढूंढता फिरता है मुझे घर मेरा
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एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
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मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा
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मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
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